Monday, September 16, 2013

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ  जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ  ग़ैर की बस्ती हैकब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
झिलमिलाते कुमकुमों की राह में ज़ंजीर सी  रात के हाथों में दिन की मोहिनी तस्वीर सी  मेरे सीने पर मगरचलती हुई शमशीर सी  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ये रुपहली छाँवये आकाश पर तारों का जाल  जैसे सूफ़ी का तसव्वुरजैसे आशिक़ का ख़याल  आह लेकिन कौन समझेकौन जाने जी का हाल  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
फिर वो टूटा एक सिताराफिर वो छूटी फुलझड़ी  जाने किसकी गोद मेंआई ये मोती की लड़ी  हूक सी सीने में उट्ठीचोट सी दिल पर पड़ी  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
रात हँस – हँस के ये कहती है कि मयखाने में चल  फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के काशाने में चल  ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल   ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
हर तरफ़ बिखरी हुई रंगीनियाँ रानाइयाँ  हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगड़ाइयां  बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुए रुस्वाइयाँ  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
रास्ते में रुक के दम लूँये मेरी आदत नहीं  लौट कर वापस चला जाऊँमेरी फ़ितरत नहीं  और कोई हमनवा मिल जायेये क़िस्मत नहीं  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मुंतज़िर है एकतूफ़ान-ए-बला मेरे लिये  अब भी जाने कितनेदरवाज़े वहां मेरे लिये  पर मुसीबत है मेराअहद-ए-वफ़ा मेरे लिए  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ  उनको पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी छोड़ दूँ  हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
एक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब  जैसे मुल्ला का अमामाजैसे बनिये की किताब  जैसे मुफलिस की जवानीजैसे बेवा का शबाब  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
दिल में एक शोला भड़क उट्ठा हैआख़िर क्या करूँ  मेरा पैमाना छलक उट्ठा हैआख़िर क्या करूँ  ज़ख्म सीने का महक उट्ठा हैआख़िर क्या करूँ  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ  इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ  एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मुफ़लिसी और ये मज़ाहिरहैं नज़र के सामने  सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिरहैं नज़र के सामने  सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़ाबिरहैं नज़र के सामने  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ले के एक चंगेज़ के हाथों से खंज़र तोड़ दूँ  ताज पर उसके दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ  कोई तोड़े या न तोड़ेमैं ही बढ़कर तोड़ दूँ  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
बढ़ के इस इंदर-सभा का साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ  इस का गुलशन फूँक दूँउस का शबिस्ताँ फूँक दूँ  तख्त-ए-सुल्ताँ क्यामैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ  ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

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