शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँझिलमिलाते कुमकुमों की राह में ज़ंजीर सी रात के हाथों में दिन की मोहिनी तस्वीर सी मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँफिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी हूक सी सीने में उट्ठी, चोट सी दिल पर पड़ी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँरात हँस – हँस के ये कहती है कि मयखाने में चल फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के काशाने में चल ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँहर तरफ़ बिखरी हुई रंगीनियाँ रानाइयाँ हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगड़ाइयां बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुए रुस्वाइयाँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँरास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँमुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये अब भी जाने कितने, दरवाज़े वहां मेरे लिये पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँजी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ उनको पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी छोड़ दूँ हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँएक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँदिल में एक शोला भड़क उट्ठा है, आख़िर क्या करूँ मेरा पैमाना छलक उट्ठा है, आख़िर क्या करूँ ज़ख्म सीने का महक उट्ठा है, आख़िर क्या करूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँजी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँमुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़ाबिर, हैं नज़र के सामने ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँले के एक चंगेज़ के हाथों से खंज़र तोड़ दूँ ताज पर उसके दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँबढ़ के इस इंदर-सभा का साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
Monday, September 16, 2013
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